उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद अन्तगर्त सैनिकों एवं साहित्यकारों की भूमि कहे जाने वाले एशिया महाद्वीप की सबसे बड़ी ग्राम पंचायत गहमर जो जमदग्नि, विश्वामित्र, गाधि-तनय, इत्यादि ऋषी -मुनियां का सतसंग समागम स्थल हुआ करता था, में स्थित है आदि-शक्ति माँ कामाख्या का मंदिर। आदि-शक्ति मॉं कामाख्या मंदिर शक्ति पीठ में अलग महत्व रखता है। मान्यता है कि कालान्तर में इस पवित्र भूमि में विश्वामित्र जी ने भगवान राम के साथ एक महायज्ञ किया था। और भगवान राम ने यहाँ से आगे बढ़ कर बक्सर में ताड़का नामक राक्षस का वध किया था ।
मंदिर की स्थापना के बारे में कहाँ जाता है कि पूर्व काल में फतेहपुर सिकरी में सिकरवार राजकुल पितामह खाबड़ जी महाराज ने कामगिरि पर्वत पर जा कर मॉं कामाख्या देवी की घोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न मॉं कामाख्या ने कालान्तर तक सिकरवार वंश एवं उनके सहयोगीयों की रक्षा करने का वरदान दिया। बाबर से मालवा के युद्व में पराजित होने के बाद हताश एवं परेशान खाबड़ जी महाराज के वंशज महाराज धामदेव को एक रात मॉं कामाख्या ने काशी क्षेत्र में जाने एवं वही अपना निवास बनाने का स्वपन दिया । मॉं का आदेश मान कर राजा धाम देव फतेहपुर सिकरी से कूच कर काशी से आगे बढ़ते चले गये। गंगा एवं कर्मनाशा के संगम के करीब गंगा नदी के तट पर अपने पुरोहित गंगेश्वर उपाध्याय के साथ सकराडीह के पास माँ के मंदिर और गहमर गॉंव की स्थापना किया। आज गंगा नदी मॉं कामाख्या मंदिर से कुछ दूर बहती हैं। मंदिर में स्थापित योनी मंडल में मॉं कामाख्या का साक्षात् निवास है। भारत देश की सीमाओं पर जब भी युद्ध होता है, उस समय कामाख्या मंदिर में पूजा-अर्चना बंद कर दिया जाता है। मान्यता है कि युद्ध के समय मॉं कामाख्या मंदिर छोड़ कर युद्ध भूमि में अपने भक्तों की रक्षा करने उतर जाती है। दर्जनों ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिससे यह मान्यता बलवती हो जाती है।
कहा जाता है कि मुगल सम्राट औरंगजेब ने अपने शासन काल में इस मंदिर की मूर्तियों को खंडित करवा दिया था। कुछ का मानना है कि अंग्रेजो के शासन काल में इसे तोड़ा गया। वर्ष 1840 ई0 तक मंदिर में खंड़ित मूर्तियां की ही पूजा होती रही। इनमें प्रमुख रूप से काली, महाकाली, सरस्वती, यक्ष, यक्षिनी, भैरो व आदिचेरोखरवार की मूर्तियॉं थी। सन् 1841 ई0 में अपनी गहमर के र्स्वणकार तेजमन ने मनोकामाना पूर्ण होने के बाद इस मंदिर के पुनःनिर्माण का बीड़ा उठाया। मंदिर का निर्माण प्राकृतिक यंत्र व्यवस्था के आधार पर काशी के महा पंडितो के बुला कर कराया गया। निमार्ण के बाद मंदिर में खंडित मूर्ति के स्थान पर नयी मूर्ति की स्थापना की गयी। सन् 1980 ई0 में गहमर के जनमेजय सिंह ने अपनी मनोकामाना पूर्ण होने के बाद मंदिर परिसर के सुन्दरीकरण का कार्य शुरू कराया। मंदिर का जीणोद्वार प्रारम्भ हुआ मॉं कामाख्या के अगल- बगल सरस्वती व लक्ष्मी की मूर्ति की तथा मुख्य द्वारा पर गणेशजी की काली मूर्ति लगायी गयी। मंदिर के गर्भगृह के पास ही एक नीम का पेड़ है जिस पर भक्त अपने मन्नत का धागा बॉंधते हैं और अपनी मनोकामना पूर्ण होने के बाद उस धागे को खोलते हैं।
*जय माँ कामाख्या*